भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छंद 60 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
Kavita Kosh से
(कवि संतोष-वर्णन)
उर-अंतर आवत इती, मति सौं अति-अकुलाइ।
कह्यौ कबित-मिस आप ही, तुरत ‘गिरा’ समुझाइ॥
भावार्थ: ऐसी शंका के उत्पन्न होते ही व्याकुल होकर ‘भगवती भारती’ ने स्वप्न में इस दोहे के ब्याज से मेरा संतोष किया।