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छंद 66 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

छप्पय
(मंगलाचरण)

एकै ह्वै बिबि-रूप, राधिका-स्याम कहावैं।
ह्वै बस-ब्रज-जुबतीन, चतुर-चातुर मन-भावैं॥
पंचबान-रति कोटि, अंग-अंगनि पैं वारे।
छल-बल करि ब्रज-सुजस, परम-पावन बिसतारे॥
‘द्विजदेव’ सात हूँ, अष्ट-सिद्धि-दाता बिदित।
मन सेबहु नबधा-भक्ति-जुत, नबरस-मय ब्रजराज नित॥

भावार्थ: एकमात्र ‘परब्रह्म’ द्विधा अर्थात् माया और ब्रह्म किंवा प्रकृति और पुरुष, राधिका और कृष्णचंद्र होकर संसार में कहे जाते हैं और लीलावश व्रज-वनिताओं के संग वशीभूत हो चतुर मनुष्यों के मनों को मोहित करते हैं। कोटि-कोटि काम और रति उस युगल जोड़ी के अंग-प्रत्यंग पर न्योछावर हैं। परम पवित्र सुयश को अनेक छलबल से कौतुकवश व्रज मंे फैलाते हैं, ऐसे भगवान् ‘श्रीराधाकृष्ण’ सातों भुबन में आठों सिद्धियों के देनहारे हैं-देनेवाले हैं। कवि कहता है कि हे मन! नवधा भक्ति-संयुक्त होकर तू नवरसमय व्रजराज ‘श्रीकृष्णचंद्र’ का सेवन कर।