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छंद 67 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(युगल स्वरूप-वर्णन)

उन्नत, पीन पयोधर की छबि, धारैं मनोज के साँचे सहायक।
दीह सुकेसी कौ मान हरैं, ‘द्विजदेव’ के भााए सदाँ सुख-दायक॥
मोहिँ प्रतीति परी अब तौ, बिबि-रूप बिलोकि सबै बिधि लायक।
हौ मन सौं, तन सौं तुम एक, अहो! राधिका-राधिका-नायक॥

भावार्थ: कवि इस मंगलाचरणात्मक छंद में श्लेष-बल से, तन-मन से एक हुए राधा-माधव से अपनी इच्छा के पूर्ण होने की आशा सूचित करता है। माधव-पक्ष में अर्थ है कि-उन्नत उठे हुए गंभीर श्यामघन की छवि को धारण किए हुए, जिनके देखने से काम की अधिकता होती है और उत्कृष्ट केशी नामक दानव के मान को हरनेवाले अर्थात् मारनेवाले तथा सुर-भूसुर के सुखदाता, ऐसे भगवान् रासबिहारी को देख मुझको कार्य-सफलता की प्रतीति हुई और राधा-पक्ष में ऊँचे और पुष्ट कुच, जो काम के सहायक हैं, उनकी शोभा धारण किए हुए तथा सुकेशी नामक परम सुंदरी अप्सरा के मान को मर्दित करती, ऐसी ‘द्विजदेव’ कवि की सहायता करने वाली ‘श्रीराधाजी’ को अवलोकन कर मुझे कार्य की परिपूर्णता की प्रतीति हुई।