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छंद 6 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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(भ्रमरावली के गुंजार से संभ्रम-निवारण का वर्णन)
संभ्रम अति उर मैं बढ़्यौ, रह्यौ नहीं कछु ग्यान।
मधुकरीन-मुख ता समै, पर्यौ सबद यह कान॥
भावार्थ: ऐसा चित्त में भ्रम बढ़ा कि ज्ञानशून्य सा हो गया, इतने ही में भ्रमरियों के समूह के गान से यह शब्द कानों में सुनाई पड़ा।