छंद 72 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिला सवैया
(परस्पर अनुराग-वर्णन)
दोऊ चंद-चकोर से ह्वै हैं अली! फिरिहैं दोऊ आनँद मैं भटके।
दुनहूँन की बाढ़िहै प्रीति-लता, लहि प्रेम-पियूष दुहूँ घट के॥
‘द्विजदेव’ जू मोहिँ प्रतीति परी, मिटिहैं सिगरे मन के खटके।
मुख हीं जब चौंहैं मिलाप अली! तो कहा भयो लोयन के फटके॥
भावार्थ: अंतर अनुराग भरे हुए हृदय और बाहर लाज लपेटे नयनों को देख सखी शंका करती है कि क्या प्यारी-प्यारे का मिलन असंभव है? दूसरी अंतरंगिणी सखी इस प्रकार समझाती है कि हे सखी! ये दोनों चंद्र-चकोर से रहेंगे और दोनों आनंद में भटके हुए फिरेंगे तथा दोनों के हृदयों की प्रीति-लता प्रेम-पीयूषधारा से सिंचित हो अवश्य बढ़ेगी? मुझको तो प्रतीति है कि तेरे मन की सारी चिंता अवश्य जाती रहेगी, क्योंकि हृदय का द्वार मुख है, जब मुख ही आपस में मिलाप चाहे-मिलना चाहे तो लोचनों के लज्जावश फटके रहने से क्या होता है। अभिधामूलक व्यंग्य के बल से दूसरा अर्थ यह भी भासित होता है कि दोनों तरफ के मुख अर्थात् मुखिया (प्रधान) जब आपस में मिलाप चाहें तो लोयन यानी अनुयायी लोगों के फटके (पृथक्) रहने से क्या होता है।