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छंद 77 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

देखि मधु-माँस की इतीक अनरीति, मधु-सूदन जु होते तौ न औते कहौ काहे कौं।
जानि ब्रज-बूड़त जु होते गिरिधारी तौ पैं, ब्रज मैं बढ़ौते दुख-सोते कहौ काहे कौं॥
‘द्विजदेव’ प्यारे पिय-पीतम जु होते तौ पैं, उधौ! इत तुमहिँ पठौते कहौ काहे कौं।
बसिकैं बिदेस बीजुरी-सी ब्रज-बालनि कौं, होते घनस्याम तौ बरौते कहौ काहे कौं॥

भावार्थ: हे उद्धव! इस मधु (चैत्र) मास को, उनकी कृपापात्र विरहिणी बालाओं पर ऊधम मचाते देख यदि कृष्ण वास्तव में ‘मधु-सूदन’ (मधु-दैत्य संहारक और वसंतविरह-तापनाशक) होते तो यहाँ क्यों न आते, क्योंकि शूर अपने कृपापात्रों पर बैरियों का अत्याचार नहीं देख सकते। योंही गोपियों की अश्रुधारा से डूबते व्रज को देख यदि वास्तव में वे ‘गिरिधारी’ होते तो सुख से विदेश में न सोते अर्थात् पूर्ववत् व्रज को डूबते देख उसे बचाते। योंही बिजली सरीखी (सदृश) व्रजवनिताओं को छोड़ यदि वास्तव में ‘घनश्याम’ होते तो विदेश में न छा रहते क्योंकि घनश्याम से दामिनी पृथक् नहीं होती, और सच तो यह है कि यदि वे सचमुच हमारे प्रियतम होते तो आपको योग सिखाने को न भेजते अर्थात् वे अत्यंत निठुर हैं।