छंद 78 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(नायक-विरह-निवेदन-वर्णन)
आधी लै उसास मुख आँसुन सौं धोवैं कहूँ, जोवैं कहूँ आधे-आधे-पलन-पसारिकैं।
नींद, भूँख, प्यास ताहि आधीहू रही न तन, आधेहू न आखर सकत अनुसारिकैं॥
‘द्विजदेव’ की सौं ऐसी आधि अधिकानी जासौं, नैंकऊ न तन-मन राखति सँभारिकैं।
जा दिन तैं जोरि मन-मोहन लला पैं डीठि, राधे! आधे-नैननि तैं आई तू निहारिकैं॥
भावार्थ: कोई अंतरंगिणी सखी, प्यारी (श्रीराधिकाजी) के दर्शन से प्यारे मनमोहन को विकल देख उनकी दशा कहती है कि हे राधे! आप जब से अर्द्धोन्मीलित मत्तलोचनों से प्यारे को देख आई हो तब से सब क्रिया उनकी आधी ही हो गई अर्थात् वे अर्द्धश्वास भर आँसुओं से मुख मार्जन करते और अधखुली आँखों से आपकी बाट जोहते हैं, नींद, भूख, प्यास, आधी भी उनके तन में नहीं रही तथा क्षीणता से अर्द्धाक्षर के उच्चारण में भी उन्हें श्रम होता है। मैं देव, ब्राह्मणों की शपथ खाकर कहती हूँ कि आधि (व्याधि) आधापन (मानसी व्यथा) की ऐसी अधिकता हुई है कि तन-मन का कुछ भी सँभार नहीं हो सकता। जब नयन की लगा-लगी में यह गति हुई तो मिलन में क्या होगा!