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छंद 81 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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 मत्तगयंद सवैया
(दूती-कार्यांतर्गत संघटन-वर्णन)

होते हरे नव अंकुर की छबि, छारन-कछारन मैं अनियारी।
त्यौं ‘द्विजदेव’ कदंबन-गुच्छ, नए-ई-नए उनए सुखकारी॥
कीजिऐ बेगि सनाथ उन्हैं, चलिऐ बन-कुंजन कंज-बिहारी।
पावस-काल के मेघ नए, नए नेह नई बृषभाँनु-कुमारी॥

भावार्थ: हे कुंजों में विहार करने वाले कृष्ण! वन-कुंजों में शीघ्र चलकर उस नायिका को कृतार्थ कीजिए, क्योंकि पावस-काल के बादल अभी नए-ही-नए उनए (उठे) हैं और नवीन प्रेम में पगी नवेली वृषभानु-नंदिनी (राधा) भी है, योंही यमुना के पावन पुलिन में नवीन अंकुर की निराली हरित छटा है तथा कदंब-पुष्पों के नवीन गुच्छे पृथ्वी पर झुकते हुए कैसे सुहावने लगते हैं; अतः आप शीघ्र ही चलें क्योंकि उस नायिका का प्रेम नवीन है और वह प्रेम-पथ से परिचित भी नहीं है, न उसके कंटकों की वेदना ही को जानती है तथा वय भी उसका नवीन है, अतएव अनभिज्ञ है।