भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छंद 88 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
Kavita Kosh से
दुर्मिला सवैया
(उन्माद-दशा व परकीया नायिका-वर्णन)
न भयौ कछु रोग कौ जोग दिखात, न भूत लग्यौ, न बलाइ लगी।
न कोऊ कहुँ टौनौं-डिठौनौं कियौ, नहिँ काहू की कीन्हीं उपाइ लगी॥
‘द्विजदेव’ जू नाँहक हीं सबके हिऐं, औषध-मूल की चाइ लगी।
सखि! बीस-बिसैं निसि याहि कहूँ, बन-बौरे-बसंत की बाइ लगी॥
भावार्थ: नायिका को न तो कोई रोग का जोग है, न भूत, न प्रेत, न कोई अन्य उपद्रव ही है और न किसी ने इस पर टोना किया है तथा न किसी की डीठि ही लगी है। इन लोगों के चित्त में औषधि और जड़ी-बूटी की चाह नाहक है। हे सखी! बीस-बिस्वा इसको वसंत की वायु लगी है, क्योंकि जड़ों का संग करने से यही फल होता है।