छंद 90 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(अज्ञात यौवना व अन्यसंभोग दुःखिता नायिका-वर्णन)
आज-लौं हौं हूँ गई उनके हित, वे ऊ हमैं लखि कैं अनुरागे।
पैंअब जी मैं रुचै सो करैं, ‘द्विजदेव’ जूऔरौं उछाह सौं पागे।
जाइ है मेरी बलाई बबा की सौं, खेलिबे कौं मनमोहन आगे।
आँखैं मुँदाइ हमारी हहा! अब औरन हूँ सँग खेलन लागे॥
भावार्थ: कोई ‘मुग्धा अज्ञातयौवना’ सवतों के-अन्य स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए प्रियतम को देख स्वाभाविक सपत्नी-डाह से यों कहती है कि अद्यावधि मैं नायक के हेतु उनके पास जाती रही और वे भी मुझे देख अनुराग करते रहे, किंतु अब जो उनके चित्त में आवे सो करें अर्थात् और भी उत्साहपूरित होवें, अब मेरी बलाय उनके संग खेलने को जाएगी। देखो सखियो! मेरी आँखों को कहते हैं कि मूँद लो, तिस पीछे और स्त्रियों से खेलने लगते हैं। स्त्रियों का यह स्वभाव ही है कि अपनी सपत्नी की उन्नति ज्ञात व अज्ञात भाव से कदापि सहन नहीं करतीं।