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छंद 94 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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रूप घनाक्षरी
(फाग-वर्णन)

लै-लै कर झोरी जुरि आईं इतै गोरी, उतै होरी खेलिबे कौं ग्वाल-जाल हूँ बनायौ कीच।
छाइगौ छिनै मैं यौं गुलाल मेघ-माल ऐसौ, ‘द्विजदेव’ जासौं ना जनायौ परै ऊँच-नीच॥
ऐसी भई धूँधरि धँमारि की सु ताही समैं, पावस के भोरैं मोर सोर कै उठे अपीच।
घन के समान ज्यौं-ज्यौं घनस्याम त्यौं-त्यौं, संपा-सी दुरति आली चंपा-घन-बन-बीच॥

भावार्थ: एक सखी दूसरी सखी से व्रजमंडल में मची हुई होली की समता पावस से मिला (कर) कहती है कि अबीर की झोरी लेके व्रज-बालाएँ इधर जुट गईं और उधर फाग खेलने को ग्वाल-बालों ने भी रंग की कीच बनाई। क्षण भर में गुलाल ऐसा उड़कर छा गया जैसे मेघ का समूह, जिससे दृष्टि की गति अवरोधित हो गई, उस समय ढोल और धमारि का ऐसा शब्द हुआ कि मयूरों को उसे देख-सुनकर पावस का धोखा तथा घनगर्जन का संदेह हुआ और उससे वे सुंदर शब्दों का उच्चारण करने लगे। बादलों की तरह जैसे घनश्याम इतस्ततः रंग डालने को दौड़ते हैं, वैसे ही दामिनी-सी श्रीराधिकाजी भी चंपा के घन-वन में छिपती हैं। कीच, घन-गरज, मयूर की केका वाणी, घनश्याम की दौड़, दामिनी का दमककर छिप जाना, मेघमाला का घिर जाना आदि पावस ही में होता है, जिसका कवि ने बड़ी चतुराई से फागुन में वर्णन किया।