छंद 99 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(नवोढ़ा नायिका-वर्णन)
स्याम कौ बास नितै सुनि कैं या कितेक दिना तैं हुतो बन छूटै।
पैं कहि ‘पी हैं कहाँ’? सठ तैंहीं, बई उर मेरे बिसास की बूँटै॥
तातैं इतै डगरी ‘द्विजदेव’, न जानती कान्ह अजौं मग-लूटै।
ए रे बिसास के घातक चातक! तो बतियाँन पैं गाज न टूटै॥
भावार्थ: कोई ‘नवोढा नायिका’ चातक पर रुष्ट हो इस प्रकार उलाहना देती है कि मैंने ‘कृष्णचंद्र’ का वास इस ‘वृंदावन’ में सुनके बहुत दिनों से (वृंदावन का) आना-जाना छोड़ दिया था, किंतु तेरे पी कहाँ...पी कहाँ? शब्द-उच्चारण करने से मुझे भ्रम हुआ कि कदाचित् अब वे यहाँ नहीं हैं; तब तो तू उच्च स्वर से पुकार-पुकारकर ‘पी’ अर्थात् उन श्यामसुंदर को ढूँढ़ रहा है? अतएव इस वन में आने का मैंने साहस किया। मैं यह कदापि न जानती थी कि अद्यापि वे वन में बटमारी करते हैं, अतः तूने धोखा दिया। सो हे विश्वासघाती चातक! तेरी इन मीठी बातों पर गाज अर्थात् वज्र क्यों नहीं टूटता-पड़ता।