छटपटाता कविता कबूतर / पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी
अतीत को गले से लगाए
यह वर्तमान
हमारी आँखों में धूल झोंकते हुए
भागलपुर पगड़डीहा और कुम्हरे में
एक घायल कहानी लिखता रहा
जिसके पन्ने—
पन्ने-पन्ने होकर
जीवन की सड़क पर बिखरते रहे
शास्त्र-शस्त्र के सहस्रों फनवाले सिरफिरे काले नाग
बारम्बार डसते रहे हैं
जातीय ऊँच-नीच का ज़हर—
मनुष्य के शरीर में फैलाते रहे हैं
और आम आदमी
न जाने कहाँ-कहाँ दम तोड़ता रहा
'अहं ब्रह्मास्मि' का स्वरूप होकर
भी वह
कीचड़-गन्दगी के विराट आँगन में
करता रहा है वृक्षारोपण
अज्ञात की तुलसी रोपता रहा है
लेकिन
जो जल में लहरा-सा विद्यमान
वह गतिमान
संवेदना का अंकुर कहीं छूट-सा गया है
आदमी के अन्तर में रूठ-सा गया है
परकटे कबूतर-सा छटपटाता
मेरा कविता कबूतर कराहता—
वर्तमान परिवेश में
अस्मिता के लिए चीख़ता-चिल्लाता
अब क़लम से कतराने लगा है—
और सजाने लगा है तीरों के स्वप्न!