छठम मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
कयलनि अगस्त्य प्रारम्भ यज्ञ बारह वर्षक
पसरल सुदूरधरि समाचार अतिशय हर्षक
पहुँचला सहस्रो ऋषि, मुनि, याज्ञिक आ पण्डित
आमंत्रण पाबि सुविप्र-वर्ग महिमा-मण्डित
होता सभ अग्नि-समान तेजमय, तप-बलमय
किछ अश्मकुट्टभोजी, किछु भोजन करथि अनय
किछ होता परिपृष्टिक, किछु सूर्य किरणपायी
किछु फलाहार निर्भर किछ गो दुग्धाहारी
विप्र दल भिक्षु दल, सात्त्विक-नैष्ठिक दर्शक दल
पहुँचल; संस्कारित भेल अगस्त्यक यज्ञस्थल
संग्रह कयलनि ऋषिवर अगस्त्य किछ शुद्धान्नक
दू मास चलि सकै छलनि खर्च दूनू साँझक
विश्वास छलनि, यज्ञार्थ अन्न नहि घटि सकतनि
सौंसे समाज भ’ स्वतः स्फूर्त क्रमशः अनतनि
प्रज्वलित भेल एक सय आठ टा हवन कुंड
तृप्तिक निमित्त पहुँचला मरुद्गण झुण्ड-झुण्ड
गूंजित भ’ गेल चतुर्दिक ‘स्वाहा’ मंत्र गान
साकार भेल नव कर्मकाण्ड विज्ञान - ज्ञान
देवगण, इष्टगण, ग्रहगण, भेला तुष्टि-मगन
प्रारम्भ भेल साधन-स्वरामे सिद्धि ध्वनन
चौदहो भुवनमे भेलै चर्चित यज्ञोत्सव
संवाद महानुष्ठानक आगि जकाँ पसरल
शंकित भ’ उठला इन्द्र: छिनायत इन्द्रासन
छीनत योगी कविवर अगस्त्य भोगक साधन
बारह वर्षक ई यज्ञ पूर्ण होयतैक जखन
विश्वक कोनो पद ऋषिक हेतु दुर्लभ न तखन
चौंकल इन्द्रक मनमे बिजुरी बनि राजनीति
यश-ईर्ष्यासँ दहकल देवेन्द्रक धर्म प्रीति
अपराध नीति अपना इन्द्रक सामन्तवाद
निश्चित कयलक किछु पैघ उपद्रव मचयबाक
आदेश देल वारिद दलके नहि बरसबाक
सम्बद्ध क्षेत्रमे ताप-शाप टा परसबाक
सोचल कि अन्त बिनु यज्ञ कार्य होयत बाधित
ऋषि अयश लेत जानता, भिक्षुक होता आदिक
से भेल; गगनसँ एको बुन्न न जल बरिसल
तरसल रहि गेल धरा, कृषि कार्य भेल असफल
चिन्ता पसरल, जन जीवनमे शंका पसरल
अन्नाभावे सर्वत्र क्षुधा-मृत्युक भय छल
संकटमे छल पड़ि गेल स्वयं कृषकेक प्राण
यज्ञक निमित्त ऋषिके अन्नक के दैत दान?
इन्द्रक गुप्तचर वर्ग सक्रिय भ’ क’ सभ ठाँ
कयलक मिथ्या संवाद प्रसारित जहाँ-तहाँ
जे यज्ञे अछि ऋुटिपूर्ण, बन्न ते भेल वृष्टि
असमय मृत्युक भयसँ काँपल सम्पूर्ण सृष्टि
यज्ञस्थलमे चिन्ताग्निक ज्वाला धधकि उठल
होतागणधरि अन्नाभावक शंका पसरल
लगलै’ कि यज्ञ नहि रहतै बिनु भेने बाधित
आहूत देवगण रहि जयताह अनाराधित
अपशकुनक भसँ त्रस्त लगै’ छल याज्ञिक दल
ऋषिवरसँ रहि सकलनि न गुप्त इन्द्रक छल-बल
क्रोधे दृग लाल, भालपर विश्वासक रेखा
उगलनि; कहलनि: ‘‘अपराधी छथि देवेन्द्र टा
चिन्ता न करू होतागण, याज्ञिक गण, जन-गण
प्रत्यक्ष करब हम आइ अपन मंत्रक दर्शन
अन्नक अभाव खटकत न आब यज्ञक निमित्त
हम स्पर्श मात्रसँ करब हविष्यक विधि पूरित
भावना मात्रसँ क्षुधा पूर्ति होयत देवक
मेटत जन-गणक भूख मंत्र बलसँ सेवक
ऋषि छी, कयने छी बीज-यज्ञ आइधरि अनेक
अन्नक अभाव यज्ञक पथमे बाधा न देत
अथवा नवीन अन्नक हम मांत्रिक सृष्टि करब
जे बिनु बरखा इच्छानुसार उपजैत रहत
वा अन्न-सम्पदा विश्वभरिक हम मङा लेब
मनके एही रंगमे आइ हम रङा लेब
अध्यात्म कंठ जँ करत उच्चरित भौतिक स्वर
एकाधिकार रहि सकत सुरक्षित तखन ककर?
उपजत नहि यदि गगनक उरमे सभ्यता-शील
ऊर्ध्वमुख करब पातालक जल हम ठोकि कील
कृषि कार्य रहत कहियाधरि आकाशक आश्रित?
इन्द्रेक संतुलन हेतु वरुण छथि आराधित
देलहुँ हविष्य, सताक अहं तैयो न हटल?
इन्द्रक संकुचित हृदयमे संतोषो न अँटल?
हम स्वयं इन्द्र बनि अम्बर सँ बरिसायब जल
भैटतैक विश्वके हमर आणविक मंत्रक फल
रहती नहि सरस्वती लक्ष्मी पीठक चेरी
कुश-कलम फेकि क’ बजा देब हम रणभेरी
मानवतासँ दुष्टता करत जँ देव-तत्व
मानव अपनेमे आरोपित करतै’ सुरत्व’’
क्रान्तिक शंके सुरगणक शरीर सिहरि उठलनि
शान्तिक निमित्त अन्न-धन यज्ञमे पठबौलनि
डोलल इन्द्रासन स्थितिक उग्रता देखि-देखि
बरिसल नभसँ जल, इन्द्र लेल ईर्ष्या समेटि
जय घोष भेल जनगणक अगस्त्यक यश पसरल
ठमकल कृषि कार्य पुनः ससरल सुतरल, उसरल
सामर्थ्य देखि ऋषिवरक चमत्कृत छल समाज
अन्नक भावमे रुकल न यज्ञक हवन कार्य
बीतल एकादश वर्ष, यज्ञ निर्विघ्न चलल
बारहम वर्षमे यज्ञ समापन दिस ससरल