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छठा पुष्प / रक्षा मंत्री से भेंट / आदर्श

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चल कर अशोक के भवन से
सूर्यमुखी और कवि
रक्षा विभाग मंत्री
पुष्प भटकटैया पास

पहुँचे सुनने के लिए
उनके विचार भी।

भटकटैया पुष्प थे विराजमान
पीताम्बर धारण किये
प्रेम और करुणा की
मूर्ति मानों सुन्दर।
आत्म रक्षा का महत्व मान कर
कांटों की छत्र छाया
स्वीकृत विश्राम सुखदायिनी
थी उनको।

बड़े उत्साह से
कवि के पधारने का
सब कारण बताकर
सूर्यमुखी बोली थीं-
देव! यहां आये थे
मानवों के लोक से,
कवि हैं, विशेष दुख
करते हैं अनुभव
देख कर मानवों का अधःपात।

पंचशील सुन्दर सिद्धान्त की
पुष्पनगर में यहाँ कितनी है मान्यता।
परिचित हो इससे
संतोष कुछ मिला इन्हें।
आप से भी बातें कुछ करनी हैं,
समाधान करिए।

बोले भटकटैया पुष्प,
आकर आवेश में
समाधान कैसे करूँ?
इनका संदेह क्या है?
प्रश्न ही नहीं है जहां
उत्तर हो किसका?

बोले कवि!
रक्षा सचिव सुनिए।
राष्ट्रपति श्री गुलाब
से भी मिल आया हूँ,
देखा उन्हें उग्र कांटों के बीच
बड़े गौरव से, गर्व से उमंगते!

किन्तु नहीं थे वे
एक प्रेम ही के प्रतिनिधि,
उनमें थी लाली कहीं
रोष की
और कहीं
स्वाभिमान उभरा था
बांकी पंखड़ियों के
लुभावने निखार में

प्रेम का प्रतीक
पीला रंग उनमें तो कहीं
मुझको न दिखायी पड़ा,
पाया कांटों के साथ
उसको बस आप में।

समझ में आयी नहीं बात यह
प्रेम का जो
अनुपम प्रतीक है
कांटों से मित्रता क्यों
उसकी है इतनी?
जरा मुसकराये और
बोलै भटकटैया यों-

”सत्य कहते हो कवि!
प्रेम का उपासक हूँ
फिर भी मैं
नीति वश शासन करने के लिए
क्रूरता, कठोरता भी
खूब अपनाता हूँ।

मेरा प्रेम अलग नहीं है कभी
क्रूरता से
प्रेम सारे विश्व से है।
क्रूरता है उनके प्रति केवल-
जो अत्याचार भावना से

प्रेरित हो वार किया करते हैं-
आत्मरक्षा भाव से
मैं उनका ही
मान अभिमान
किया करता हूँ मर्दन।

कष्ट पहुँचाने के लिए मुझे
जो बढ़ते,
उन्हें समझाता हूँ
न धोखा कभी खायें वे
मेरा प्रेम दुर्बलता,
दीनता से नहीं है निचुड़ता
वह तो उमड़ता है
शक्ति भावना से सदा।

समता का भाव जिन्हें प्रिय है,
उसका विकास इष्ट
जिनको है विश्व में
बांटें वे न प्रेम कभी
शक्ति नहीं जिसमें
उत्पादन की शेष है।

भूले वे लोग हैं,
अपराधियों को
क्षमा किया करते हैं जो
और नहीं जानते
कौन अपराधी
किस व्यवहार योग्य है।

ऐसे भी अधम हैं
आततायी दूषित,
जो मानव की संस्कृति का
नाश कर देना ही
जीवन का मानते हैं साधन।

उन्हें प्राण दंड देकर
हम विश्व मानव को
प्राण नया देते हैं,
मानव की गति शील
संस्कृति को
कदम एक आगे
ठेल देते हैं।

ऐसे नराधमों को
प्रेम और करुणा का
एक कण देना
विश्व मानवता कलेजे में
तेज धार वाली
तलवार भोंक देना है।

ऐसे प्रेम करुणा को
जिसने ”अहिंसा, कहा,
झूठ बोलता है वह
और ऐसे दोषियों के
दंड के विधान को
जिसने कहा ”हिंसा,
वह भी झूठ बोलता है,
बुद्धि भ्रष्ट जिनकी है
वे ही हैं
उलटी ये बातें किया करते।“

देख भटकटैया को
बातों को समाप्त
करने की ओर ढलते,
कविवर ने कहा
यह प्रेम का अनूठा रूप
बतलाया आपने,
उसका कर्त्तव्य और क्षेत्र
यदि माना जाय
वही जिसे कहा अभी आपने।

प्रेम एक अंश बन जीवन का
केवल व्यभिचार का
उत्तेजक न होगा कभी,
प्रेयसी की मुसकान
मदिरा को पीकर ही
शैया पर
करवटें लेने में,
कामना की ज्वाला से
तड़पने में
प्राणेश्वरी के
तीखे नयन-कटाक्ष बाण-
चोट खाकर
प्राण देने में
वह प्रेम सार्थकता
अपनी नहीं मानेगा।

ऐसा प्रेम मानव का
मानव समाज का
कल्याण साधन ही
इष्ट सदा समझेगा।

सच्चा प्रेम
औरों को मिटाता नहीं,
उनको जिलाता है,
पालता है, पोसता,
साजता, संवारता है।
मान लो, पुजारी
उसी प्रेम का मैं हूँ सदा।

कोमल, सुकुमार मेरे पत्ते
व्यर्थ मलने,
रौंदने के लिए
नहीं हैं बनाये गये,
इनका इस्तेमाल है
मानव की वेदना को,
दर्द को दबाने में,
शांति उसे देने में,

इसकी उपेक्षा कर
छेड़ते जो मुझको
उनको पुरस्कार
मेरे कांटों की नोकों का
अनायास मिलता है।“

कवि ने फिर प्रश्न किया-
हे महान कांटेश्वर।
और है अनेक पुष्प
यहां पुष्पनगर में।
कितने ही उनमें हैं
कांटों से विहीन,
वे किसी को
कभी दुख नहीं देते हैं।

और बड़ी भीनी है
महक भरी उनमें,
मानव को मिलता है
उनसे सदैव सुख।
आप में तो सुन्दरता भी
नहीं विशेष कुछ
और मनमोहक
महक का तो नाम नहीं
यही देख मुझे
यह शंका है हो रही,
आप का नहीं है यह
प्रेम मार्ग मानव को हितकर।“

कहा भटकटैया ने,
देखो कवि!
दोष भरी दृष्टि लेकर
मेरे पास आये हो,
पूरा सत्य आप को
न होगा कभी भासित
मीठी, विकारमयी,
चीजें जो मोह लेतीं मन को
आप को लुभाती हैं,
मानव का हित होगा, जिससे
वह चीज नहीं भाती है आप को,
फिर भी आप आये हैं
पंचशील पंचामृत खोज में

निश्चय यह मानिए,
मेरा प्रेम मानव के जीवन को
सुन्दर प्रवाह से
प्रवाहित बनाता है,
और वह जीवन है-
अखिल, समग्र, पूर्ण।

मेरी यह पावन विभूति
नहीं पायेंगे
कहीं किसी पुष्प में।
ये सब हैं
जीवन के केवल एक भाग की ही
सीमा में सीमित।
हे कवि! प्रमाद में न फँसो
बात समझो।“

खुली दृष्टि कवि की
और कहा तब उसने-
”हे पावन पुष्पराज।
शब्द भेद भरे अब
आये मेरे ध्यान में,
मैंने अब जाना यह
पंचशील तत्व सब
छिप कर बैठा है
कठोरता, मधुरता के
पावन मिलन में।
केवल कठोरता से, या
केवल मधुरता से
जीवन का संतुलन
कभी ठीक होगा नहीं।

दोनों ही मिलें और
मिल कर एक हों,
और वह एकता हो
ऐसी अधायी हुई, जिसमें
कहीं भी विषमता का
चिह्न नहीं मिल पाये
जैसे महासागर में
डूब कर एक बन जातीं
बूंदें जल की।

आप के यहाँ से
यह दिव्य ज्ञान पुंज लेकर
आगे अब जाऊंगा,
क्षमा करें
कोई भूल हुई यदि मुझसे।“

यह कह कर नमस्कार किया
और हास से प्रफुल्प
भटकटैया से बदले में
प्राप्त कर नमस्कार
कविवर सूर्यमुखी साथ चले आगे को।

सूर्यमुखी बोली,
कुछ दूर जाकर,
”चलिए, अब
महिला उत्थान मंत्राणी
श्री चमेली माननीया
के भवन हमें चलना है।