छठी ज्योति - चपला / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
चपले! क्यों चमक-चमक कर
मेघों में छिप जाती हो?
क्यों रूप-छटा तुम अपनी
दिखला कर भग जाती हो?॥1॥
क्या लुक-छिप कर मेघों से
बातें करती रहती हो?
या हिल-मिल कर तुम उनसे
क्रीड़ा करती रहती हो?॥2॥
क्यों चमक दिखाकर आँखों
में चकाचौंध भरती हो?
जग देख न ले यह लीला
इससे डरती रहती हो?॥3॥
क्या इसीलिए मन चंचल
थर-थर कँपता रहता है?
लज्जा-वश हो क्षण-भर भी
वह कहीं नहीं रुकता है?॥4॥
क्यों कड़क-कड़क कर नभ में
गर्जन करती फिरती हो?
क्रोधित हो इधर-उधर क्यों
प्रति-क्षण भगती रहती हो?॥5॥
क्या शत्रु तुम्हारा कोई
उस नभ में छिपा हुआ है?
जिसका बध करने को ायह
विकराल स्वरूप हुआ है॥6॥
या नहीं भूमि की आँखें
लग रहीं मेघ के ऊपर;
तुम देख नहीं सकती हो
उसको ईर्ष्यावश होकर॥7॥
बस इसीलिए क्या उस पर
ये दाँत किटकिटाती हो?
मुख लाल, क्रोध में होकर
मुख जीभ लपलपाती हो?॥8॥
चाहती नष्ट कर देना
इसलिए गर्ज उठती हो।
पाकर अवसर तुम उस पर
शीघ्र ही टूट पड़ती हो॥9॥
स्वाभाविक सखी, तुम्हारा
सौतिया-डाह में जलना।
एकाधिकार प्रेमी पर
चाहती प्रेमिका रखना॥10॥
सखि! एक बात मैं पूछूँ
उसका उत्तर क्या दोगी?
‘प्रेमी’ के संग कैसे तुम
हिल-मिल कर रह पाओगी?॥11॥
है अग्नि-शिखा सम जलता
रहता यह गात तुम्हारा।
औ’ उसका वह तन मानो
शीतल जल का फव्वारा॥12॥
यह व्रज-समान तुम्हारा
निर्मम-निष्ठुर तन आली!
औ’ हिम-सी द्रवणशील वह
उसकी तन-छटा निराली॥13॥
हाँ, वाह्य रूप-रंग में तो
तुम स्वर्ण सदृश चमकीली।
रहती हो तड़क-भड़क में
प्रेमी से अधिक छबीली॥14॥
पर तन की सुन्दरता ही
पर्याप्त नहीं होती है।
उर की कोमलता भी कुछ
निज मूल्य अलग रखती है॥15॥
उसका उर कितना कोमल
है छिपा नहीं यह तुमसे?
औ’ कुलिश कठोर तुम्हरा
भी छिपा नहीं उर तुमसे॥16॥
उसका स्वभाव भी कितना
गम्भीर, धैर्यशाली री!
पर तुम तो सखी सदा से
चंचला प्रकृति वाली री॥17॥
वाणी में भी दोनों के
कितना महान् अन्तर है।
तुम कड़क वचन कहती हो
उसका गँभीर मृदृ स्वर है॥18॥
कोमलता, द्रवणशीलता,
गम्भीर नाद की मृदुता
उसके गुण; और तुम्हारे
चंचलता, कटु कठोरता?॥19॥
वह तो है जीवनदाता,
जीवन अर्पित कर देगा।
हिलमिल-कर संग तुम्हारे
जीवन-निर्वाह करेगा॥20॥
पर मैंने जो पूछा था
उसका उत्तर क्या दोगी?
प्रेमी के संग कैसे तुम
हिलमिल कर रह पाओगी?॥21॥