छठ-पर्व की संध्या / विमल राजस्थानी
झाँक रहे हैं खेत अचंभित हँसते वन की ओर
उजड़ी दुनिया अपनी, बसते हुए चमन की ओर
पंछी लौटे वन को, भर कर चंचु-चंचु तिनके
नीड़-नीड़ में प्राण-बीन के तार-तार झनके
मुग्ध दिवा-पति के छवि-चरणों से हिलते जल में-
खड़ी नारियाँ मौन फूल-फल भर कर अंचल में
कोमल कमल-सम्पुटी-सी कुछ बाँधे अंजलियाँ
तपसिनियों-सी रवि-पूजन अर्चन में रत कलियाँ
निरख रही है अपलक छवियाँ ‘ज्योति-सुमन’ की ओर
विदा माँगते हुए, विहँसते रवि-आनन की ओर
झूल रही झुक लहर हिंडोले दीपों की माला
पेंग-पेंग पर थिरक रहा मणि-चिमित उजियाला
दूर-दूर पर मचल रही तारों की छवि-छाया
तोड़ किसी अल्हड़ ने मानो गजरा छितराया
यह उमंग की साँझ कि मोहित कवि के प्राण खिले
कवि-वन्दन में दीपों के झिलमिल छवि-शीश हिले
कटि किंकिनियाँ झनका जाती आ-आ कर इस ओर
अल्हड़ वारि-राशि की अँगड़ाई की मधुर हिलोरे
-छठ पर्व की संध्या
1945