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छड़ी / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
पहाड़ पर एक छड़ी मिल जाए तो
हम भी पार कर सकते हैं ऊँचाइयाँ
एसा कहते हैं यात्री
और इसे हाथों में थामे निकल पड़ते हैं वे।
अब दो नहीं तीन पाँव हैं उनके पास
लड़ने के लिए मुशि्कल रास्तों से।
चारों तरफ कड़कती ठंड
और उनसे लड़ने के लिए
चढ़ाई पर चढ़ने से प्राप्त हुई गर्मी।
सुबह से शाम तक यूं ही चलते रहना है
हर रोज बारह किलोमीटर
लगातार तीन दिनों तक
उसके बाद होंगे बाबाजी के दश॔न
ठंडे देश के बाबाजी भी बर्फ से बने
हुए उनके दश॔न और सारी थकान खत्म
पूरा हुआ एक बड़ा उद्देश्य जिन्दगी का
लौट रहे हैं वे अब घर
छड़ी कहाँ छूट गयी है किसी को याद भी नहीं।