छतरी / भारतरत्न भार्गव
वह बैठी दुबकी कोने में पैबन्द लगी
काली सी बूढ़ी याद पिता की
टूटी छतरी।
डर लगता छूते झरझरा कर गिर पड़ने का
पुराने पलस्तर का
मन की दीवारों को करके नंगा।
यादें खुलकर नुकीले तारों सी
सीने में उतर जा सकतीं
हो सकता मर्माहत
किसी उखड़ी याद के पैनेपन से
अकारण ही अनायास।
इतिहास है छोटा इस याद का
छतरी भर।
चिपट गई थी कैशौर्य में
हौल खाए बच्चे की तरह
शव को मुखाग्नि देने के बाद।
कभी यह याद चलती थी साथ-साथ
धूप में छाँव में
भाव में अभाव में
देती थी सब
देती ही होगी सब कुछ
जो नहीं मिलता कहीं कभी भी
छतरी के अलावा।
अब नहीं देती कुछ भी
सुख-दुःख
करुणा-शोक
अन्धेरा-आलोक
धिक्कार-स्वीकार
प्यार-वितृष्णा
यह पैबन्द लगी याद।
फिर भी बैठक के कोने में
दुबकी-सी रहती है
पिता की याद
ज़रूरी से सामान के साथ
टूटी छतरी।