छतुका / हरिऔध
किसी के कभी यों बुरे दिन न आये।
किसी ने कभी दुख न ऐसे उठाये।
भला इस तरह हाथ किस ने बँधाये।
किसी ने कभी यों न आँसू बहाये।
हमारी तरह बात किस ने बिगाड़ी।
उलहती हुई बेलि किस ने उखाड़ी।
हमारे लिए आन की बात कैसी।
किसी की हुई आँख नीची न ऐसी।
हमारी गई है बिगड़ चाल जैसी।
किसी की कभी चाल बिगड़ी न वैसी।
किसी के न यों उलझनें पास आईं।
किसी ने बुरी ठोकरें यों न खाईं।
किसी ने हमारी तरह है न खोया।
किसी ने नहीं नाम हम सा डुबोया।
किसी ने नहीं इस तरह हाथ धोया।
भला कौन यों मूँद कर आँख सोया।
किसी की गई पीठ कब यों लगाई।
भला यों गई धूल किस की उड़ाई।
कभी यों न पतले हुए दिन किसी के।
कभी यों हुए रंग किसी के न फीके।
किसी ने किये काम कब यों हँसी के।
कभी इस तरह हम बुरे थे न जी के।
किसी ने कभी है न इतना ऍंगेजा।
भला थाम किस ने लिया यों कलेजा।
गिरे जिस तरह हम गिरेगा न कोई।
कभी इस तरह पत किसी ने न खोई।
किसी की न मरजाद यों फूट रोई।
किसी ने कभी यों न लुटिया डुबोई।
हमारी तरह धाक किस ने गँवाई।
किसी ने न यों आग घर में लगाई।
हमें हैं बहुत डाह के ढंग भाते।
हमी फूट को हैं गले से लगाते।
हमीं बैर को आँख पर हैं बिठाते।
हमीं हैं घरों बीच काँटे बिछाते।
हमीं ने सगों का लहू तक बहाया।
हमीं ने बहक जाति बेड़ा डुबाया।
हमारी रगों में भरी है बुराई।
खुटाई सभी बात में है समाई।
हमें भूल सी अब गई है भलाई।
हमें देख कर है कलपती सचाई।
हमीं हाथ हैं बेढबों का बटाते।
हमीं बेतरह हैं अड़ंगे लगाते।
दिखावट हमें है बहुत ही लुभाती।
बनावट बिना नींद ही है न आती।
हमें ऐंठ की रंगतें हैं रिझाती।
ठसक की सभी बात ही है सुहाती।
बढ़ा आज बेढंग पन है हमारा।
सगों से हमीं कर रहे हैं किनारा।
न जाने हुईं क्या उमंगें हमारी।
उभरतीं नहीं आज चाहें उभारी।
बहुत ही जँची काम की बात सारी।
उतरती नहीं हैं गले से उतारी।
गई गाँठ कायरपने से बँधाई।
पड़ी बाँट में है हमारे कचाई।
नहीं हम किसी के सँभाले सँभलते।
नहीं हम बुरे ढंग अपने बदलते।
पकड़ ठीक राहें हमीं हैं न चलते।
बुरी लीक पर से हमीं हैं न टलते।
समय ओर आँखें हमीं हैं न देते।
सबेरा हुआ करवटें हैं न लेते।