छतों से छतों की दुनियाँ / प्रगति गुप्ता
जब छोटी-छोटी
मुंडेरों की चारदीवारी,
छोटी हुआ करती थी,
तब आपसी बातचीत
एक सिरे से दूजे सिरे पर
स्वतः ही पहुँचा करती थी...
हाथ भर की दूरी पर
बस निजता का होना, होता था
हर इंसान एक दूसरे के पहुँच में
हाथ भर की दूरी पर होता था...
जब रोना हँसना आपसी घरों में
साफ-साफ सुनाई देता हो,
तब भावों से जुड़ी संवेदनाओं की
पहुँच क्यों नहीं एक दूजे तक हो...
छुटमुट की कहासुनी तब भी
आज के जैसे ही होती थी
पर वैकल्पिक साधन न होने से
हर कहासुनी जल्दी ही खोती थी...
छूती थी जब संवेदनायें
एकदूजे को अति निकट आकर,
तब वही बाँध बन,
रिश्तों को जल्द ही पिरोती थी...
आज इन बन्धों को
वो ही समझेगा जिन्होंने
गुज़ारी हो छतों से छतों पर
बचपन से जवानी तक की
सैकड़ों चुहलबाज़ीयाँ...
ढ़ली हुई हो जब आदतें
हरेक की दूसरे में
तब सब अपना-सा ही लगता है...
यह भाव तो,
वही महसूस कर पाता है
जो सांझी छतों के
अदृश्य बन्धों को महसूस कर
छतों से छतों की,
दुनिया को नापता है...