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छत पे चलती हुई सी लगती है / रविकांत अनमोल
Kavita Kosh से
शाम ढलती हुई सी लगती है
शमअ जलती हुई सी लगती है
रात सपनो की राह पर यारो
अब तो चलती हुई सी लगती है
उनसे तय थी जो मुलाकात अपनी
अब वो टलती हुई सी लगती है
हर तमन्ना न जाने क्यों अब तो
दिल को छलती हुई सी लगती है
हमने दिल खोल कर दिखाया जो
हमसे गलती हुई सी लगती है
जाने क्यों ज़िंदगी हमें अपनी
हाथ मलती हुई सी लगती है
शाम से इक उम्मीद थी दिल में
अब वो फलती हुई सी लगती है
ये जो दुनिया ख़फ़ा-ख़फ़ा सी थी
कुछ बदलती हुई सी लगती है
तुम जो आए हो अब तबीयत भी
कुछ संभलती हुई सी लगती है
रात झांझर पहन के पैरों में
छत पे चलती हुई सी लगती है
रात की नींद उड़ी हो जैसे
आँख मलती हुई सी लगती है