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छन्दों का संजीवन ले / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
जब पीर पिघलती है मन की
तब गीत नया में गाता हूँ।
सम्मान मिले जब झूठे को
सच्चे के मुँह पर ताला हो।
ममता को कैद किया जाये
समता का देश निकाला हो।
सपने जब टूट बिखरते हों
तब अपना फ़र्ज़ निभाता हूँ।
छल बल जब हावी होकर के
करुणा को नाच नचाते हैं
प्रतिभा निष्कासित हो जाती
पाखंड शरण पा जाते है।
तब रोती हुई कलम को मै
चुपके से धीर बँधता हूँ।
वैभव दुत्कार गरीबी को
पगपग पर नीचा दिखलाये
जुगन उड़कर के सूरज को
जलने की विद्या सिखलाये
तब अंतर मन में करूणा की
घनघोर घटा गहराता हूँ।
जब प्रेम-सुधा रस कह कोई
विष-प्याला सम्मुख धरता है।
आशा मर्यादा निष्ठा को
जब कोई घायल करता है।
मैं छंदों का संजीवन ले
मुर्दों को रोज़ जिलाता हूँ।