भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छब्बीस / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खोई शरहद जबतक वीरों
पास नहीं ला दोगे

तबतक लौट न आना प्यारे, कोटी-कोटी नयनों के तारे
अतिथि दूज तिथि के तुम हिमकार हे! भारत के भाग्यरेख तुम दिनकर
मुरझे कमल जी कुसुम के मुख
जब हास नहीं ला दोगे

धो धो अपनी माँग सुहागन
चढ़ा दिये हँस-हँस पति अनगिन
खिले अधर पर हास माँग जिनके हैं सूने
उनके लिये कहो वीरों क्या सोच रखा है तूने

जबतक बदले में दुश्मन की लाश नहीं ला दोगे
दुश्मन की लाश नहीं ला दोगे

आई साँझ सितारे आये, बड़े भले सबके मन भाए
कनक पाश में सजा केश को, सुंदरियों ने सेज बिछाए

बोल रही पिक से प्यारी
मधुमास नहीं ला दोगे
ऐसे में एक अबलानारी, सहज सुंदरी अति सुकुमारी
जीती है अब भी भारत हिट, जल-जल विरह अनल में नित-नित

विरह यज्ञ में जब तक उसके
रिपु की साँस नहीं ला दोगे

यहाँ घास की रोटी कहर जिसने समय बिताया
याद करो चित्तौड़ के राणा की थी कैसी काया
जबतक कोई-धरती और आकाश
नहीं ला दोगे