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छलक जाती है कविता / गोविन्द कुमार 'गुंजन'
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बहुत कम
हाथों में आती है
ज्य़ादातर
छलक जाती है कविता
जैसे
कुए पर
फूटी बाल्टी से
खींचता हूँ पानी,
बाल्टी
जिसमें छेद ही छेद हैं
डोर
जो बहुत छोटी है
होठों को भिगोती
मनवासी प्यासी को सहलाती जाती है
कविता
बहुत कम हाथों में आती है
ज्य़ादातर छलक जाती है