छलना / महेन्द्र भटनागर
आज सपनों की
नहीं मैं बात करता हूँ !
चाँद-सी तुमको समझकर
अब न रह-रह कर
विरह में आह भरता हूँ !
नहीं है
रुग्ण मन के
प्यार का उन्माद बाक़ी,
अब न आँखों में सतत
यह झिलमिलाती
तुम्हारे रूप की झाँकी !
कि मैंने आज
जीवित सत्य की
तसवीर देखी है,
जगत की ज़िन्दगी की
एक व्याकुल दर्द की
तसवीर देखी है !
किसी मासूम की उर-वेदना
बन धार आँसू की
धरा पर गिर रही है,
और चारों ओर है जिसके
अंधेरे की घटा,
जा रूठ बैठी है
सबेरे की छटा !
उसको मनाने के लिए अब
मैं हज़ारों गीत गाऊँगा,
अंधेरे को हटाने के लिए
नव ज्योति प्राणों में सजाऊँगा !
न जब तक
सृष्टि के प्रत्येक उपवन में
बसन्ती प्यार छाएगा,
न जब तक
मुसकराहट का नया साम्राज्य
धरती पर उतर कर जगमगाएगा,
कि तब तक
पास आने तक न दूँगा
याद जीवन में तुम्हारी !
क्योंकि तुम
कर्तव्य से संसार का मुख मोड़ देती हो !
हज़ारों के
सरल शुभ-भावनाओं से भरे उर तोड़ देती हो !
1952