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छलने! तुम्हारी मुद्रा खोटी है / अज्ञेय
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छलने! तुम्हारी मुद्रा खोटी है।
तुम मुझे यह झूठे सुवर्ण की मुद्रा देते अपने मुख पर ऐसा दिव्य भाव स्थापित किये खड़ी हो! और मैं तुम्हारे हृदय में भरे असत्य को समझते हुए भी चुपचाप तुम्हारी दी हुई मुद्रा को स्वीकार कर लेता हूँ।
इसलिए नहीं कि तुम्हारी आकृति मुझे मोह में डाल देती है- केवल इस लिए कि तुम्हारे असत्य कहने की प्रकांड निर्लज्जता को देख कर मैं अवाक् और स्तिमित हो गया हूँ।
दिल्ली जेल, 16 अगस्त, 1932