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छल-झूठ की है आपको आदत नई-नई / सूरज राय 'सूरज'

छल-झूठ की है आपको आदत नई-नई.
खादी नई-नई है सियासत नई-नई॥

सच प्यार यक़ीं दोस्ती ईमान ग़म अना
ये दिल कहाँ से लाता है आफ़त नई-नई॥

हाथों से काम पंख का लेने लगे हो तुम
बेअक़्ल कर ही देती है दौलत नई-नई॥

अब सोचने का हमने तरीका बदल दिया
ये फ़र्श तो वही है मगर छत नई-नई॥

आने लगा है मुझको मुक़द्दर पर अब तरस
लाए कहाँ से रोज़ वह तोहमत नई-नई॥

ये सोच के ही ख़त उसे कोरा थमा दिया
पढ़ने का शौक उसको इबारत नई-नई॥

हमसे तो एक शेर भी होता नहीं नया
लिखता है रब तू कैसे ये किस्मत नई-नई॥

किससे बचाएँ ख़ुद को बचाएँ भी किस तरह
देती है दर पर दस्तकें दहशत नई-नई॥

किस्मत की वक़्त की जहाँ की दिल की दर्द की
जीने के लिये रोज़ इजाज़त नई-नई॥

लहजे़ से अब तमीज़ की जाने लगी महक
शायद कहीं से आ गई ताक़त नई-नई॥

या रब वह तेरे ब्रश को तेरे रंग को सलाम
जिससे तू बनाता है ये सूरत नई-नई॥

उल्फ़त अज़ल से जो थी क़यामत तलक़ वही
लेकिन कहाँ से आती है नफ़रत नई-नई॥

माँ ने हज़ार बार सिखाई थी एक बात
बेटे तबाह करती है संगत नई-नई॥

 "सूरज" चिराग़ चाँद सितारे या बिजलियाँ
सामान सब पुराने हैं कीमत नई-नई॥