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छहरि रही है कं, लहरि रही है कं / राय कृष्णदास
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छहरि रही है कं, लहरि रही है कं,
रपटि परै त्यों कं सरपट धावै है।
उझकै कं, त्यों कं झिझकि ठिठकि जात,
स्यामता बिलोकि रोरी-मूंठनि चलावै है॥
कौंलन जगाइ, नीके रंग में डुबाइ, भौंर-
भीर को गवाइ, कितो रस बरसावै है।
केसर की माठ भरे, कर पिचकारी धरे,
पूरब-सुबाला होरी भोर ही मचावै है॥