छह दिसम्बर / रमेश आज़ाद
यहीं कहीं जन्मा था मैं
याद नहीं वह खास जगह
विशाल महल था यहां
दास-दासियां
राजा-रानियां
मंत्री-सेनाएं
सब थे;
सब के रहते देखते मैं
नदी-नाले पहाड़-बीहड़
सबको पार करता वन-गमन कर गया...
सरजू में
तब से न मालूम
कितनी नदियांे का पानी बह गया
बहता है अभी भी
रोज-रोज
समंदर से मिलने की ललक
थमी नहीं है नदी की
थमेगी भी नहीं,
प्रेम करती हैं नदियां
जैसे प्रेम करता है समंदर-
अपनी हजारों-हजार बांहें फैलाकर...
यहीं घुटनों चलना सीखा था
दौड़ना-लड़ना सीखा था
राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति के गुरु
मिले थे यहीं
यहीं महाकवि वाल्मीकि-तुलसीदास
कबीर मिले थे,
यहीं कहीं कोपभवन था
सीखा था जहां रूठना-मनना
मंझली मैया यहीं थीं
भैया भरत से प्रेम करती
जैसे भैया भरत मुझसे प्रेम करता है,
यहीं कहीं फूलों और खुशबुओं से सराबोर था
मेरी प्रिया का शयनकक्ष
प्रेम करते थे हम
जैसे आकाश करता है धरती से
जैसे धरती करती है अपनी संतति से...!
यहीं बीता था छह दिसम्बर
देखते-देखते नीला अम्बर हो गया था लाल,
किसी मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे या गिरिजाघर में यहीं
उस रोज भी किराएदार की तरह था मैं
किसी पत्थर की मूरत में कैद
देख रहा था ‘जन-भावना’ का ताब
प्रेम नगरी में उफनती नफरत का सैलाब
सुना था कहते-होना ही था यह सब-
हिटलर खिचड़ी मुस्कान मुस्कुरा रहा था
मेरी आंखों में झांककर...
उस रोज
मेरी छाती में त्रिशूल घोंपा गया
मार ईंटों से मेरी देह जख्मी कर दी गई
और उद्घोष हो रहा था मेरा ही नाम-
श्रीराम!
मेरे ही देह पर
मेरा ही पूजाघर ढहा दिया गया था
और मैं चुप रहा...