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छाता / प्रेमरंजन अनिमेष
Kavita Kosh से
जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते
हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करूंगा
और लूँगा एक छाता
इस शहर के लोगों के पास जो छाता है
उसमें कोई एक ही आता है
इसलिए
सोचता हूँ
मैं लूँगा
तो लूँगा आसमान
कि जिसमें सब आ जाएँ
और बाहर खड़ा भीगता रहे
बस मेरा अकेलापन
बराबर लगता है
छाते
रिश्ते-नाते हैं
बरसात में काम आते हैं
और अक्सर
छूट जाते हैं !