भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छाप जीवन की / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
फिर कुहुक
बनकर समाई
याद मधुबन की।
रोम में
जगने लगी है
गन्ध चन्दन की ।
थामकर
बैठे रहे
अरुणाभ किरणों की हथेली
लाज से
सकुचा गई थी
भोर की दुल्हन अकेली
तीर पर उतरी नहाने
रुपसी मन की ।
डबडबाती
आँख -सी है
रूप की यह झील निर्मल
पास में
सुधियाँ तुम्हारी
जैसे तुम हो लहर चंचल
ढूँढता हूँ
हर लहर में
छाप जीवन की ।
-0-