छाया नर की दिखी प्रेत में,
काँप रहा है शिशिर खेत में।
पके धान अनपके रह गये,
विपद खेत के बांध सह गये,
आँखों के काजल आँसू को
साथ लिए चुपचाप बह गये;
सरसों-हाथ हुए न पीले,
तीसी फूल दुखों से नीले
थान देव के ऐसे लगते,
जैसे, बंजर-ऊसर टीले;
नदी सूख कर सीत हो गयी,
सोन माँछ है पड़ी रेत में ।
नेह गल गये पात-कुसम के,
रंग उड़े मेंहदी-कुंकुम के,
फागुन की आहट न पा कर
रोये खूब विलख कर झुमके;
पूस-माघ पसरे हैं ऐसे
परदेसी पाहुन हों, जैसे,
अमराई में बैठी कोयल
गायेगी चैता फिर कैसे!
नींद बिजूका चूस गया सब
संध्या के आते अचेत में ।