भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छाया बोलती / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
प्रीति बसे अँगना अँगना जब, सब रस घोलती ।
तन मन वैरनि ठानि रहे क्यों, माया डोलती ।
भीर पड़े तन काम न आया,जगती भावना,
धीर धरे कब घनी निराशा,मन को तोलती ।
राग-रंग मिथ्या विलासिता, सुख को चाहना,
तनकर खड़ा हो कर्म साक्षी, छाया बोलती ।
है कठिन दूरी बनाना जब,छलती कामना,
त्याग तप ज्ञान शुचिता ही,हृद को खोलती ।
अनुदिन खो रही प्रेम-वैभव,कुत्सित धारणा,
प्रीति सत्य उर साँचे राजे, सब कुछ मोलती ।