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छाले मेरे पाँव के / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
कह रहे हैं दर्द सारे, छाले मेरे पांव के
कल तलक रिसते रहेंगे घाव मेरे पांव के
बेड़ियां जंजीर की, क्या बेड़ियां हैं जाति की
भेड़ियों से वो झपटते, चलती मेरी नाव पे
अजनबी लगता हूँ क्यों, अपने गांव शहर में
मुल्क है मेरा मगर, न मिल्कियत है नाम पे
देखिये हर रोज कितनी, लुट रही है ज़िन्दगी
तोड़ते हैं दम यहाँ, कानून ज़ालिम दांव से
क्या करें कोई यहाँ, कानून का भी रहनुमा
जुल्म की आंधी में वह भी, पिस रहे हैं ठाव से
आलमे मौका परस्ती, छाया है बादल नुमा
बरस रहे हें गुरबतों की, टूटी-फूटी छांव पे
‘बागी’ चलके देखते हैं, आग कैसी है लगी
अब जल रहा उनका, घर जो लगाते आग थे