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छाले / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
आँख मींच लो
अभी न सोचो
सोचेंगे कल
करने से क्या
हुआ कभी कुछ
पड़े रहे जब
तले वृक्ष के
पूरा दिन ही-
हाथों में थे मोती उजले
शाम ढले जब
मुट्ठी खोली
कभी दौड़ते रहे
सड़क पे
लेकर छेनी और कुदाली
खोद-खोद दिन गए
दिनोंदिन
हाथों थे, हाथों के छाले
खाली