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छा गए हैं आज फिर बादल घने / विनोद तिवारी
Kavita Kosh से
छा गए हैं आज फिर बादल घने
हो गए मज़दूर सारे अनमने
रास्तों के बीच हैं नदियाँ कई
और सारे पुल अभी हैं अधबने
नौकरी बेटे की पक्की हो गई
सेठ से क़र्ज़ा लिया फिर बाप ने
लोग पीछे से भी कर देते हैं वार
आँख है मजबूर रहकर सामने
हाठ उन लोगों के निकले पाक साफ़
होंठ जिनके ख़ून से पाये सने
जश्ने आज़ादी पुलिस का इंतज़ाम
लोग देहातों से पहुँचे देखने