भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
Kavita Kosh से
छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की
ले ले के बलाएँ पलकों की
याद आती है वो चंचल चितवन
और शोख़ अदाएं भोलापन
धक धक करता है मेरा मन
गहराई में तू है सांसों की
छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की......
जो दुःख भी है तुझसे दूर रहे
तू बन के परी और हूर रहे
जो मांग मे है सिन्दूर रहे
जलती रहे ज्योती नैनों की
छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की......
जब प्रेम जगत पर छाऊंगा
मन को मैं तेरे भाऊँगा
चाहा है तुझे मैं पाऊँगा
है मेरी तपस्या बरसों की
छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की
ले ले के बलाएँ पलकों की