भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की
ले ले के बलाएँ पलकों की

याद आती है वो चंचल चितवन
और शोख़ अदाएं भोलापन
धक धक करता है मेरा मन
गहराई में तू है सांसों की

छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की......

जो दुःख भी है तुझसे दूर रहे
तू बन के परी और हूर रहे
जो मांग मे है सिन्दूर रहे
जलती रहे ज्योती नैनों की

छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की......

जब प्रेम जगत पर छाऊंगा
मन को मैं तेरे भाऊँगा
चाहा है तुझे मैं पाऊँगा
है मेरी तपस्या बरसों की

छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की
ले ले के बलाएँ पलकों की