भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छिनते बेवक़्त न रोटी के सहारे अपने / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छिनते बेवक़्त न रोटी के सहारे अपने
बिकते परदेस में क्यों आंख के तारे अपने।

अपनी बाहों पे भरोसा है अगर तुमको तो
तुम भी सकते हो बदल दोस्त सितारे अपने।

चाह है सिर्फ जिये सुख से हमारी बस्ती
हो के मजबूर कोई मन को न मारे अपने।

जान जायेगी, कोई उसको बता दे जाकर
पंख बैचैन परिंदा न पसारे अपने।

आइये सीख लें हम खुद से महब्बत करना
दिल में फिर कोई भी नश्तर न उतारे अपने।

जैसे गुज़रे है ये दिन-रात हमारे 'विश्वास'
है दुआ कोई न दिन ऐसे गुज़ारे अपने।