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छिपाना भी बहुत मुश्किल, दिखाना भी बहुत मुश्किल / मधु शुक्ला

Kavita Kosh से
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छिपाना भी बहुत मुश्किल, दिखाना भी बहुत मुश्किल ।
तुम्हारी याद को दिल से, भुलाना भी बहुत मुश्किल ।

कई अशआर काग़ज़ पर, लिखे हैं और फाड़े हैं,
कि दिल का दर्द ग़ज़लों में, सुनाना भी बहुत मुश्किल ।

हवाएँ अब भी लाती हैं तुम्हारी ख़ुशबुओं के ख़त,
मगर अहसास की कलियाँ खिलाना भी बहुत मुश्किल ।

इधर हैं बन्दिशें ख़ुद की, उधर पहरे ज़माने के,
मिलन के ख़्वाब ऐसे में, सजाना भी बहुत मुश्किल ।

मिले फ़ुर्सत तो पढ़ लेना कभी मेरी कहानी भी,
जो गुज़री है इधर दिल पर बताना भी बहुत मुश्किल ।

कमी कोई न थी यूँ तो, हमारी कोशिशों में, पर
हथेली की लकीरों को मिटाना भी बहुत मुश्किल ।

मिले हमदर्द ही अक्सर सफ़र में ज़िन्दगानी के,
मगर अहसान इस-उस का उठाना भी बहुत मुश्किल ।

बहुत आसान है सच को छुपा लेना ज़माने से,
है आईना मगर ख़ुद को दिखाना भी बहुत मुश्किल ।