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छिपाने की ज़रूरत नहीं अब / ओसिप मंदेलश्ताम
Kavita Kosh से
छिपाने की ज़रूरत नहीं अब,
मैं सब जानता हूँ
मुझको तो अब, भाई मेरे,
बस मरना ही होगा
मुझे भी कुछ नहीं छिपाना,
मैं यह मानता हूँ
रहस्य छोड़कर, ओ कला की देवी,
उभरना ही होगा
पर, दोस्त मेरे, यह बड़ी अजीब बात है
कभी-कभी लगे है -- मैं साँस लेना भूल चुका हूँ
धुँधला-धुँधला-सा कहीं होता यह आभास है
मैं भी मृत्यु-रहस्य में झूला झूल चुका हूँ
और अब रहस्य मृत्यु का जान कर
मैं मौन हूँ
खामोश हूँ,
पर इस नए जीवन में अब मैं कौन हूँ
और
अब तय कर रहा हूँ मैं अविचल
अपने अनन्त भविष्य की राह सफल
1908 या 1911