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छिपी आंखों से / विष्णुचन्द्र शर्मा

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आकाश में
सूरज टहल रहा है
हरे खेतों के साथ
धूप गा रही है लोकगीत।

मैं न खेत-सा ताज़ा हूँ
न धूप-सा प्रसन्न!
बस
छिपी आँखों से
सूरज को बताता रहा
अपनी व्यथा।