भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छुपाये दिल में ग़मों का जहान बैठे हैं / साग़र सिद्दीकी
Kavita Kosh से
छुपाये दिल में ग़मों का जहान बैठे हैं
तुम्हारी बज़्म में हम बेज़बान बैठे हैं
ये और बात कि मन्ज़िल पे हम पहुँच न सके
मगर ये कम है कि राहों को छान बैठे हैं
फ़ुग़ाँ है दर्द है सोज़-ओ-फ़िराक़-ओ-दाग़-ए-अलम
अभी तो घर में बहुत मेहरबान बैठे हैं
अब और गर्दिश-ए-तक़दीर क्या सतायेगी
लुटा के इश्क़ में नाम-ओ-निशान बैठे हैं
वो एक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत ही दिल का दुश्मन है
जिसे शरिअत-ए-एहसास मान बैठे हैं
है मैकदों की बहारों से दोस्ती 'साग़र'
बराये हद-ए-यक़ीन-ओ-गुमान बैठे हैं