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छुपाये दिल में ग़मों का जहान बैठे हैं / साग़र सिद्दीकी

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छुपाये दिल में ग़मों का जहान बैठे हैं
तुम्हारी बज़्म में हम बेज़बान बैठे हैं

ये और बात कि मन्ज़िल पे हम पहुँच न सके
मगर ये कम है कि राहों को छान बैठे हैं

फ़ुग़ाँ है दर्द है सोज़-ओ-फ़िराक़-ओ-दाग़-ए-अलम
अभी तो घर में बहुत मेहरबान बैठे हैं

अब और गर्दिश-ए-तक़दीर क्या सतायेगी
लुटा के इश्क़ में नाम-ओ-निशान बैठे हैं

वो एक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत ही दिल का दुश्मन है
जिसे शरिअत-ए-एहसास मान बैठे हैं

है मैकदों की बहारों से दोस्ती 'साग़र'
बराये हद-ए-यक़ीन-ओ-गुमान बैठे हैं