छुपा आग सा नित्य धुआँ घनेरा / कौशलेन्द्र शर्मा 'अभिलाष'
निशा आ गई सो गया नित्य जैसा,
मृषा स्वप्न खोया मिला विश्व कैसा।
पड़ा मृत्युशैया न वायु रहा है,
दिखे नेत्र से बूँद घेरे बहा है।
स्वजन् कंध लेकर चिता में सुलाते,
सभी पुत्र रोते विधाता रुलाते।
मुझे दृष्य था नित्य सोचा इन्हीं को,
इन्हीं के स्व की नित्य चिन्ता मुझी को।
जिन्हे मैने माना वे रोए घड़ी दो,
चिता में सुलाया मिला मृत्यु ही को।
आँख अाँसू बहा हाथ थामा किसीने,
कहा नित्य जापा मुझीको तुम्हीने।
इसी कर्म का पुण्य मुझको मिला था,
जिन्हे स्व कहा था उसी का सहा था।
इसी वस्त्र को नित्य धोके सुखाया,
सुखी ना किया हास्य मेरा बनाया।
जिन्हे मैंने माना जिन्हे मैंने पाया,
उन्हीने मुझे मृत्युशैया सुलाया।
न अभिलाष है अब उन्ही की हमें भी,
परम् मित्र है एक पीछे खड़े ही।
अरे मूर्ख पीछे दिखे तो दिखेगा,
जरा देख ले मित्र ही वो मिलेगा।
तली पे खड़ा हाथ खोले सदा है,
गिरेगा नही ना सुने वो गिरा है।
जिसे मित्र बोला कही ना दिखा वो,
जिसे याद छोड़ा मिला मैं उसीको।
तभी स्वप्न टूटा नया जन्म मेरा,
छुपा आग था नित्य धुआँ घनेरा।