भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छुपा हूँ मैं सदा-ए-बांसली में / वली दक्कनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छुपा हूँ मैं सदा-ए-बांसली में
कि ता जाऊँ परी रू की गली में

न थी ताक़त मुझे आने की लेकिन
बा ज़ोर-ए-आह पहूँचा तुझ गली में

अयाँ है रंग की शोख़ी सूँ ऐ शोख़
बदन तेरा क़बा-ए-संदली में

जो है तेरे दहन में रंग-ओ-ख़ूबी
कहाँ ये रंग, ये ख़ूबी कली में

किया ज्‍यूँ लफ़्ज में मा'नी सिरीजन
मुक़ाम अपना दिल-ओ-जान-ए-'वली' में