भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छूकर न जाया करो / विजय वाते

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यार दहलीज़ छू कर ना जाया करो|
तुम कभी दोस्त बनकर भी आया करो|

क्या ज़रूरी है सुख दुख में ही बात हो,
जब कभी फोन यूँ ही लगाया करो|

बीते आवारा दिन याद करके कभी,
अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो|

वक्त की रेत मुठ्ठी में रुकती नहीं,
इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो|

हमने गुमटी पर कल चाय पी थी "विजय"
तुम भी आकर के मज़मे लगाया करो|