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छूटता हुआ घर (कविता) / प्रकाश मनु

अब इस घर की दीवारें हिलती हैं
दरवाजे चिंचियाते हैं। सफेदी
मकड़ी की जालेदार टांगों में फंसी है
झड़ा हुआ पलस्तर और मैला एकांत
सब धकियाते
फटकारते हैं बाहर निकल जाने को।

कल ही छोड़कर चला जाऊंगा यह घर यह संसार।

कुछ पन्ने खाली कुछ भरे कुछ रजिस्टर कुछ प्रमाण-पत्र
डेढ़-दो दर्जन कविताएं चार-छै अपमान लेकर
निकल जाऊंगा बाहर
खुद की कविताओं की लय पर टूटता हुआ।

कि चाहे जो भी हो। मगर कुछ हो
हो अभिमानी अभिमन्यु की हजार-हजारवीं हत्या
लेकिन परिभाषा पूरी हो जिन्दगी की!

जाने से पहले मगर एक बार मुड़कर देखूंगा जरूर
पूछना चाहूंगा चटखती दीवारों से फर्श से
जहां खून जलाकर रची थीं कविताएं
कि जब चला जाऊंगा तो पीछे
एकाध टूटी लाइन क्या दुहराएगी यहां की हवा?