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छूटना / संगीता शर्मा अधिकारी

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बहुत मुश्किल होता है
कुछ छोड़कर भी
कुछ न छोड़ पाना
और वहां बहुत कुछ
छूटा रह जाना।

हर बार ऐसा ही कुछ होता है
हर घर से विदा लेते हुए
हर रिश्ते के साथ मुकम्मल
कभी नहीं हो पाता वह घर
जहां छूट जाती हैं
कुछ बहुत खास यादें

नवजात की किलकारी
दो कमरों के फ्लैट की बालकनी से
सर्दी की मीठी मीठी धूप में
लाडो की मालिश के फुर्सत भरे लम्हें

बाबू के गुडलियां चलने से
अपने पैरों पर खड़े होकर
स्कूल जाने तक की यादें

हमारे एकांत में बिताएं
अनेक प्यार भरे लम्हें

वो रसोई, वो आंगन
वो बेडरूम और उसका
एक निजी कोना
सब कुछ जैसे कहीं
पीछे छूटता चला जाता है
धुंधली होती यादों की तरह।

हम अपनी ही चीजों में
थोड़ा-थोड़ा छूटते जाते हैं हर पल

लेकिन बहुत कुछ छूटकर भी
कुछ छूटता नहीं है
हर घर दे जाता है
अपने साथ जुड़ी
अनगिनत-असंख्य
सुख-दुख की यादें

हर घर अपने साथ लाता है
बहुत कुछ देने के लिए
और जीता है ताउम्र जी भर कर
हमारे भीतर युगो-युगो तक।

हर घर में थोड़ा थोड़ा
कुछ छूटा ही है
और हर घर थोड़ा-थोड़ा
मुझ में छूट रहा है
इस सब छूटने के साथ ही
समेट ली हैं
बहुत सी अनुभूतियां
अपने भीतर
जो नहीं छूटेगी अब कभी।