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छूटना / समृद्धि मनचन्दा
Kavita Kosh से
गलियाँ दरवाज़े
बाज़ार चौपाल सब छूट रहे हैं
मेरा घर छूट रहा है
एक तरलता है
जो आँखों के सिवाय
हर जगह से रिस रही है
मेरी एकरसता
और एकाकीपन
गुन्थ गए हैं
सन्ताप की सभी वज़हें
छूट रहीं हैं
सारे रास, सारे भेद
सारे सवाल छूट रहे हैं
मेरी आवाज़ अब
पहाड़ों से टकराकर लौटती नहीं
मेरे शब्द छूट रहे हैं
रात भर धूप रहती है आँखों में
दिन दोपहर
छूट रहे हैं
मैं छूट रही हूँ
चेहरे छूट रहे हैं
ज़मीन छूट रही है
पर मैं किसी पेड़ की तरह
नितान्त निश्चिन्त खड़ी हूँ
मैं जो सतत छूट रही हूँ