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छूना महज छूना भर नहीं होता / जावेद आलम ख़ान

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जैसे परिणाम से बड़ी होती है प्रक्रिया
मंजिल से ज्यादा बड़ी होती है राह
वैसे ही मिलन से अधिक मूल्यवान है चाह
मैंने ताप से मुक्ति के लिए शीतलता को पुकारा
और एक चंचल लहर सागर के सीने पर मचल गई
मैं गर्म रेत-सा फैला था
वह खिलखिलाती हुई आई
और मुझे चौपाटी में बदल गई

किसी निर्जन द्वीप की तरह
मेरा एकांत भी मेरा नहीं रहा
मेरा एकांत अब दुनिया का मनोरंजन है
मेरा जीवन संसार का कौतूहल है
मैं एक अनसुलझी ज़िंदा पहेली हूँ
सुंदर अक्षरों में लिखी अर्थहीन कविता हूँ
चीत्कार करते वाणहत मृग की आखिरी हिचकी हूँ

छूना महज छूना भर नहीं होता
एक अंधड़ साथ लेकर चलता है
एक अप्रत्याशित स्पर्श
बिना बोले छोड़ जाता है अनेक प्रश्नवाचक चिन्ह
कुछ गुलाबी स्वप्न
अकेलेपन की चुभन
और महासागर-सी पसरी हुई अंतहीन प्रतीक्षा